बुधवार, 29 दिसंबर 2010

खुद को जाना तुमसे

तुमसे मिलकर जाना

पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण

इस मिट्टी भीतर के

लोहा था प्रबल

तुम्हारे चुम्बकत्व से पहचाना

घुलनशीलता तो तुममे थी

मेरा नमक तो चट्टान था

भीतर जो स्पंदन था

वो प्रेम-रूप है

तुमसे मिलकर जाना!

अब, जबकि

हमारे प्रेम-रात्री का

कृष्ण पक्ष है

मैं खुद को खोने से पहले

खो देना चाहती थी

तुम्हें और तुम्हारे प्रेम-पत्र

घर के किसी कोने में

छिपा दिया था उन्हें

जो वार्षिकोत्सव की खुदाइ में

पड़ ही जाते सामने

मन की अंतरतम गुफाओं में

बंद कर दिया था तुम्हें

पर वार कर ही देते

मेरे निहत्थे स्वप्न में

अब लगता है इन्हें खोने से पहले

खुद को खोना होगा

रविवार, 28 मार्च 2010

प्रेम-1
तुम प्रेम का कौन- सा रूप हो
तुम अवसान हो या प्रारंभ
तुम भावों के बीज हो या वृक्ष
तुमसे कुछ जन्मा है या पूर्ण हुआ है
तुम देव नहीं
क्योंकि पत्थर तो तुम हो नहीं सकते
तुम मनुष्य भी नहीं
तुम्हारे पास तो ह्रदय है
तुम कुछ नया हो, कुछ अलग
तुम समय से बहुत आगे खड़े हो
या अभी यात्रा शुरू ही नहीं की !!!
प्रेम-2
वह प्रेम का देवता
मेरे करीब आया
मुझे अपना बताया
दिलाता हुआ यकीं
झुका मेरे क़दमों में
और पैरों तले की जमीं खींच ली..........